तेजी से बढ़ रहे मनोरोग : Mano Rog, Mansik Rog ( Mental Health Article in Hindi)
तेजी से बढ़ रहे मनोरोग
मार्च महीने के आखिर से कोरोना वायरस या कोविड -19 (COVID-19) ने महामारी (Pandemic) का रूप लेलिया । इसके वजह से हज़ारो जाने दुनिया भर में जा चुकी है। वैसे तो यह बीमारी आपके फेफड़ो पर वार करती है लेकिन इन दिनों जो लॉक डाउन (Lockdown) हुआ है उसके वजह से लोगो को कई तरह की मुसीबतो का सामना करना पढ़ा उदाहरण - नौकरी का चले जाना या संकट में आजाना , बचत का ख़त्म होजाना , धंधे पानी रुक जाना इत्यादि। यह शायद 1918 (Spanish Flu) के बाद पहली बार हो रहा है जब इंसान इंसान से डरने लगा हो। व्यक्ति की सोशल लाइफ (Social Life) पूरी तरह से ठप हो गई है। इसके वजह से लोग मानसिक बीमारियों की चपेट में भी आने लगे है। इन मानसिक बीमारियों में प्रमुख है अवसाद (डिप्रेशन) (Depression) , चिंता (anxiety), अकेलापन (loneliness) , चिचिड़ापन (irritation) , गुस्सा (angry) , आक्रामकता , नींद नहीं आना (Insomnia ) इत्यादि ।
मेन्टल हेल्थ अवेयरनेस ( Mental Health Awareness)
अभी तक माना जाता था कि दुनिया में शरीर से सम्बन्धित बीमारियाँ ही तेजी से बढ़ रही हैं लेकिन अब यह तथ्य सामने आ रहा है कि मन के रोग मतलब मनोरोग (mental disease) भी विश्वभर में तेजी से बढ़ रहे हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) के अनुसार दुनियाभर में करीब 45 करोड़ व्यक्ति मानसिक बीमारियों से ग्रसित हैं । अमेरिका (America) में 24 फीसदी लोग मेंटल डिसआर्डर (mental disorder) के शिकार हैं वहीं भारत में 14 फीसदी लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं । हालत यह हो गई है कि आज दुनिया में 10 में से 1 व्यक्ति किसी न किसी मनोरोग से ग्रसित है । सर्वे में बताया गया है कि वर्ष 2030 तक मेंटर डिसआर्डर व मानसिक रोग सबसे बड़ी बीमारी के तौर पर सामने आ सकती है । इस बीमार से ग्रसित होकर विश्व में पूरे दिन भर में 3 हजार से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं । 14 से 44 साल की उम्र के लोग इस बीमारी के ज्यादा शिकंजे में हैं । नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ मेंटल हेल्थ (National Institute of Mental Health ) के अनुसर भारत में पुरूषों से ज्यादा महिलाएँ इस बीमार से ग्रसित हैं ।
मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) और छत्तीसगढ़ (Chhatisgarh) राज्यों की कुल वर्तमान आबादी 11 करोड़ के आस-पास है । इन दो राज्यों में लगभग डेढ़ करोड़ लोग मनोविकारों से ग्रस्त हैं । देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर-प्रदेश (Uttar Pradesh) में 19 करोड़ आबादी में करीब तीन करोड़ लोग इस रोग से ग्रस्त हैं । यह चैंकाने वाले तथ्य इंडियन साइकियाट्रिक सोसायटी (आयपीएस) के हैं । उत्तर-प्रदेश (Uttar Pradesh) देश के उन राज्यों में शुमार है जहाँ सबसे तेजी से मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है ।
चिंता की बात यह है कि 20 करोड़ मनोरोगियों वाले भारत में सिर्फ 7 हजार मनोचिकित्सक होने का अनुमान है । ये सभी सिर्फ बड़े शहरों में हैं । छोटे शहरों, कस्बों या गाँवों में तो मनोचिकित्सक उपलब्ध ही नहीं हैं ।
असल में मनुष्य ने सभ्यता, समाज और विज्ञान के क्षेत्र में बुलंदियों को तो छू लिया है लेकिन इसके साथ-साथ लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में भारी बदलाव आया है । काउन्सलर अभिषेक पसारी (Abhishek Pasari) के मुताबिक पितृाव्यक समाज में परिवार को पालने-पोसने और उसकी जरूरतें पूरी करने की सारी जिम्मेदारी पुरूषों की होती है । ऐसे में अधिक काम और महत्वाकांक्षाओं के कारण उनमें मानसिक तनाव बढ़ता है । महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर अवसाद पनपता है जो मानसिक तौर पर बहुत बीमार करता है । ऐसा भी कहा जाता है कि अधिकांश पुरूष अपनी परेशानियाँ दूसरों से शेयर नहीं करते । वे इनसे बचने के लिए नशे का सहारा लेने लगते हैं । नशे की लत और अनियमित लाइफ स्टाइल ही पुरूषों में तनाव के स्तर बढ़ाने वाला कारक है ।
पिछले कुछ सालों से आत्महत्या (suicide) के मामले बहुत बढ़े हैं । इनमें कुछ ने पढ़ाई में सफल न होने पर तो कुछ ने प्रेम में असफल होने तो कई युवाओं ने पारिवारिक क्लेश के चलते आत्महत्या की । इस बारे में मनोचिकित्सकों का कहना है कि आज के समय में सबसे ज्यादा युवा डिप्रेशन में चल रहे हैं जिसके चलते वह आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। यही नहीं मानसिक रोगों के इलाज को लेकर इनके मन में कई भ्रांतियाँ होती हैं । इन्हें लगता है कि मनोचिकित्सक बस नींद की दवा देता है या फिर पूरी जिंदगी दवा खानी पड़ेगी ।
मनोरोगों का एक बड़ा कारण सोशल साइटें हैं जो कहीं न कहीं व्यक्ति की दिमागी सेहत पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं । पाँच में से एक इंसान की शिकायत होती है कि उसे फेसबुक पर अपने दोस्तों की अच्छी मस्तीभरी तस्वीरें देखकर दुख होता है और वह तनाव में चला जाता है । एक सर्वे के अनुसर लगभग 70 लाख लोगों को ट्विटर (Twitter) , व्हाट्सअप (Whatsapp) , फेसबुक (Facebook) पर अपने दोस्तों को उनसे बेहतर जिंदगी जीते और नई-नई जगह घूमते देखकर खुद की जिंदगी में कमी महसूस होती है । वे मजबूरी में इन साइटों से छुटकारा भी नहीं पा सकते । वे अकाउंट भी डीएक्अीवेट नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें डर है ऐसा करने से वे दुनियाभर में हो रही चीजों से खुद को अपडेट नहीं रख पाएँगे । वक्त ऐसा आ गया है कि अगर किसी का सोशल साइट पर अकाउंट न हो तो उसे तकनीक में पिछड़ा हुआ मानते हैं यही सब डर और चिंताएँ इंसान को परेशान करती जा रही हैं । सोशल मीडिया (social media) लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम तो कर रहा है लेकिन खुद से दूर करता जा रहा है ।
देश के जाने-माने मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में इन दिनों ऐसे मरीजों के केस तेजी से बढ़ रहे हैें जो आॅनलाइन खरीदारी से ज्यादा खरीदी कर बीमारी का शिकार हो चुके हैं । ऐसे लोग आवेग में आकर ढेरांे बिला जरूरत का सामान भी खरीद लेते हैं । खरीदारी के बाद बैचेनी का शिकार हो जाते हैं । ऐसे मरीज अपनी बीमारी छिपाने के लिए तरह-तरह के बहाने बनाते हैं । लोगों की नजर में न आएँ इसके लिए छुप-छुप कर शाॅपिंग करते हैं मोबाइल तथा आॅनलाइन शाॅपिंग के ट्रेंड ने इस बीमारी को और बढ़ावा दिया है । महानगरों में यह ट्रेंड बहुत बढ़ गया है ।
जिस तेजी से देश में मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है वह सोचने को बाध्य करती हैं कि देश में मनोचिकित्सकों के अलावा योग्य काउन्सर भी जरूरी है । ज्यादातर राज्यों में जिला चिकित्सालयों में मनोरोग विभाग या तो है ही नहीं यदि है तो उपेक्षित अवस्था में है। विकसित शहरों में बहुत कम निजी संस्थान है जो बहुत खर्चीले हैं तथा सामान्य हैसियत वाले परिवारों की पहुँच सेे बाहर हैं ।
मनोरोगियों को पागल समझ नजरअंदाज करने की धारणा को भी तोड़ना जरूरी है । यूपी, करेल, राजस्थान, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बरेली, बिलासपुर, बैंगलोर, यहाँ के मेंटल हाॅस्पिटल में इलाज के बाद मानसिक रूप से ठीक हो चुके पुरूषों और महिलाओं के परिजनों ने भी उनसे मुँह मोड़ लिया । बरेली के मानसिक अस्पताल में मौजूदा समय 206 मरीज हैं जिसमें लगभग 60 मरीज ठीक हो चुके हैं । वे घर भी जाना चाहते हैं लेकिन मरीजों के परिजनों ने उन्हें अपने साथ रखने से मना कर दिया है जिससे वे अस्पताल में ही रहने को मजबूर हैं । दिल्ली के वकील गौरव बंसल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है कि ठीक हुए मरीज जिनके परिवार वाले उन्हें नहीं ले जाते उनके लिए पुर्नवास की व्यवस्था की जाए । याचिकाकर्ता का कहना है कि उत्तर-प्रदेश के बरेली शहर में स्थित एक पागलखाने का जब उन्होंने दौरा किया तो उन्हें जानकारी मिली कि यहाँ पर 70-80 मरीज ठीक हो गए पर परिवार के लोग इन्हें नहीं ले जाते । ठीक हुए मरीज फिर से समाज से जुड़ें इसके लिए मातेश्वरी एनजीओ नामक संस्था ने पहल की है । इस संस्था के सदस्य स्वस्थ् हुए मरीजों को एक बार फिर उन्हें नई जिंदगी देने में उनकी मदद कर रहे हैं ।
अंत में यह ही बोलूंगी - आप ख़ास हो, अपने आप को कम न समझें। बेशक समय ख़राब आ सकता है मगर बुरे समय की सबसे अच्छी बात यह होती है की वो ज़्यादा समय तक नहीं रहता। अगर आपको लगता है की आपको किसी प्रकार का मनोरोग है , तो आप के करीबी लोगो को इसके बारे में बताये, ज़रूरत हो तो डॉक्टर को बताये। जैसे आप अन्य बीमारी का इलाज करते है वैसे ही इसका भी कराएं। इसमें ज़रा भी शर्मिंदा होने जैसी बात नहीं है।
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